Thursday, 5 July 2018

ज़िद्द या तन्हाई ।

कुछ तो ज़िद्द थी,कुछ तन्हाई थी

शायद आज याद किसी की आई थीं।

आज फिर आँखों में मेरे रुस्बाई थी।

क्योंकि आज याद किसी की आयी थी.....।।



जख्म किसी को अपने दिखा ना साके।

समझे सब कुछ,मगर किसी को समझा ना सके ।

जख्म दिखे नही मरहम लगा न साके।।



खास समझता कोई ,ख़ामोशी तो ये आग हमें जलाई ना होती।

भीड़ बहुत थी आपनो की ..काश किसी ने तो...।

अपना कहने की हिम्मत दिखाई होती।।



गम बहुत थे ,और मरहम बहुत थे।

फिर भी किसी की कमी सताई थी।

जाने क्यों आज ..याद किसी की आई थी।।


चाहते तो अपार थी ,मगर बंदिशे हजार थी.....

चाहातो को, शायद हम छोड़ ना सके,, 

और बिंदिशो को हम तोड़ ना सके।।


फस के अपने ही जाल में ,,

अपनी ही धड़कन खामोशी से छुपी थी।

कुछ तो ज़िद्द थी ..कुछ तन्हाई थी ।।



चाहत थी मेरी भी ,में फना हो जाऊ..

भूल के सब कुछ ,,स्वार्थ में खो जाऊ...

मगर डर था मुझे ... 

कहीं अपनों से बेवफा ना हो जाऊ।।



मैंने अपने गमो की  दस्ता किसी को सुनाई ना थी,...

और ख़ामोशी मेरी किसी को समझ आयी ना थी।

कल भी थी अकेली ,और आज भी हु अकेली.....

जाने क्यों ज़िन्दगी ..मुझे लगने लगी है पहेली।।




(धन्यवाद् ..आप सब का दिन शुभ हो )



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